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दशहरा और हमारी मर्यादाएं

सम्पादकीय
सम्पादक : अंकित राठौड़

आज देशभर में विजयादशमी का पर्व हर्ष और उल्लास के साथ मनाया जा रहा है। जगह-जगह रावण, मेघनाद और कुंभकरण के पुतले जलाकर बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक प्रस्तुत किया जाएगा। लेकिन सवाल यह है कि क्या केवल पुतले दहन कर देने से बुराई समाप्त हो जाती है? क्या समाज के भीतर पनप रही कुरीतियां, भ्रष्टाचार, अपराध, अन्याय और नारी-असमानता का अंत हो पाया है?

मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम ने अपने जीवन से हमें आदर्श दिए। उन्होंने हर परिस्थिति में अपनी मर्यादाओं का पालन किया, चाहे पुत्र धर्म हो, भ्रातृधर्म, पति का कर्तव्य हो या राजा की जिम्मेदारी। उनके लिए सत्य, करुणा, संयम और धर्म सर्वोपरि थे। यही कारण है कि आज भी वे भारतीय संस्कृति के सर्वश्रेष्ठ आदर्श पुरुष कहे जाते हैं।

आज के समय में हम रावण का पुतला तो जलाते हैं, पर भीतर बैठी रावणी प्रवृत्तियों को पोषित करते रहते हैं। अहंकार, लोभ, ईर्ष्या, हिंसा और स्त्री के प्रति अनादर जैसी बुराइयां आज भी समाज में फैली हुई हैं। दहेज प्रथा, कन्या भ्रूण हत्या, नशाखोरी, भ्रष्टाचार और जातीय भेदभाव जैसे कई आधुनिक रावण हमारे चारों ओर खड़े हैं। इनका अंत केवल आतिशबाजी से नहीं होगा, बल्कि आचरण से होगा।

दशहरा हमें यह स्मरण कराता है कि यदि बुराई कितनी भी शक्तिशाली क्यों न हो, अंततः पराजित होती है। लेकिन शर्त यही है कि हम भी राम की तरह आत्मसंयम, कर्तव्यनिष्ठा और सत्य के मार्ग पर चलें। समाज की कुरीतियों को बदलने की जिम्मेदारी हम सभी की है। नारी का सम्मान करना, उनके अधिकारों की रक्षा करना, बच्चों में अच्छे संस्कार भरना और स्वयं अपने आचरण को शुद्ध रखना यही असली रावण दहन है। इस पर्व पर संकल्प लेना चाहिए कि हम केवल उत्सव तक सीमित न रहें, बल्कि अपने जीवन को भी राम के आदर्शों से जोड़ें। तभी विजयादशमी का सही अर्थ साकार होगा और अच्छाई की विजय वास्तविक रूप से संभव होगी।

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